-दिनेश ठाकुर
दो साल पहले जब इजराइल में सुशांत सिंह राजपूत और जैकलीन फर्नांडिस की जासूसी फिल्म ‘ड्राइव’ की शूटिंग हुई तो भारतीय फिल्मों के लिए विदेशी लोकेशंस का नया दरवाजा खुला था। इससे पहले इस यहूदी देश में किसी भारतीय फिल्म की शूटिंग नहीं हुई। बाद में ‘ड्राइव’ का हुलिया खुद इसके निर्माताओं (इनमें करण जौहर शामिल थे) को इतना कमजोर लगा कि इसे सिनेमाघरों में उतारने के बजाय पिछले साल एक ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज कर दिया गया। किसी दूसरी भारतीय फिल्म की यूनिट अब तक इजराइल नहीं गई है, लेकिन इजराइल की टीवी सीरीज ‘होस्टेजेस’ (2013) ( Hostages Web Series ) की कहानी भारत पहुंच चुकी है और हमारी मनोरंजन इंडस्ट्री इसका हर कोण से दोहन कर लेना चाहती है। कहानी यह है कि इजराइल में चार नकाबपोश बदमाश नामी सर्जन के परिजनों को बंधक बना लेते हैं। सर्जन दूसरे दिन वहां के प्रधानमंत्री का ऑपरेशन करने वाला है। बदमाशों की मांग है कि ऑपरेशन के दौरान वह प्रधानमंत्री की हत्या कर दे, वर्ना वे उसके परिजनों को मार डालेंगे।
इस इजरायली कहानी पर निर्देशक सुधीर मिश्रा ( Sudhir Mishra ) पिछले साल ‘होस्टेजेस’ नाम से ही वेब सीरीज बना चुके हैं। इसमें सर्जन का किरदार टिस्का चोपड़ा ने अदा किया था, जिनके परिवार को बंधक बनाकर मुख्यमंत्री (दिलीप ताहिल) की हत्या के लिए दबाव डाला जाता है। बदमाशों का मुखिया रिटायर्ड एसपी (रोणित रॉय) है। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा के पोते सुधीर मिश्रा कभी ‘ये वो मंजिल तो नहीं’, ‘धारावी’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘चमेली’ जैसी ऑफबीट फिल्में बनाते थे। पिछले कुछ साल से उनकी ‘बीट’ (ताल) गड़बड़ाई हुई है। उनकी पिछली फिल्में ‘ये साली जिंदगी’ और ‘इनकार’ देखकर यही समझ नहीं आया कि इनमें वे क्या कहना या दिखाना चाहते हैं। ‘होस्टेजेस’ में भी वे कहानी का ऐसा ताना-बाना नहीं बुन पाए थे कि दर्शक रहस्य-रोमांच में बंधा रहे। कमोबेश यही हाल इसके दूसरे भाग ‘होस्टेजेस 2’ का है, जो बुधवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आया है।
शायद सुधीर मिश्रा लोगों को ‘सोचो कभी ऐसा हो तो क्या हो’ की अटकलों में उलझाना चाहते हैं। दूसरे भाग में बदमाशों का गिरोह मुख्यमंत्री का अपहरण कर लेता है, ताकि उसके अस्थि मज्जा (बोन मैरो) का रिटायर्ड एसपी की बीमार पत्नी में प्रत्यारोपण किया जा सके। इस भाग में दिव्या दत्ता, डीनो मोरिया, कंवलजीत सिंह और श्वेता बसु प्रसाद का दाखिला हुआ है, लेकिन पटकथा पहले भाग की तरह बिखरी हुई है। घटनाएं तर्कों को अंगूठा दिखाती हैं और दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती हैं। जाने किस राज्य के मुख्यमंत्री की सुरक्षा इतनी ढीली है कि चंद बदमाश उसे आराम से उठा ले जाते हैं।
यकीन नहीं आता कि घोर बनावटी घटनाओं वाली यह वेब सीरीज उन सुधीर मिश्रा के दिमाग की उपज है, जिन्होंने ‘ये वो मंजिल तो नहीं’, ‘मैं जिंदा हूं’ और ‘धारावी’ के लिए नेशनल अवॉर्ड जीता था। क्या उम्र के साथ किसी फिल्मकार की अपने माध्यम पर पकड़ इतनी ढीली पड़ जाती है?